नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पहल पर न्याय की देवी की मूर्ति की आंखें खुल गईं और हाथ में तलवार की जगह संविधान ने ले ली है। यह कानून को सर्वद्रष्टा बताने की कोशिश है। सही है। लेकिन क्या मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा देने का रत्ती भर भी असर कानूनी प्रक्रिया पर पड़ने वाला है? मौजूदा परिस्थितियों में यह सवाल ही बेमानी है। जब लोगों में आम धारणा हो कि थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा तो जिंदगी तबाह हो जाएगी, तब मूर्ति की आंखों से पट्टी हटाकर भला क्या सुधर जाना है? न्याय की देवी को सच में आंखें देनी हैं तो आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत होगी। यह तो चीफ जस्टिस भी जानते हैं।
बता दें कि नई मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में लगाई गई है. CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद इस मूर्ति को बनाने का आदेश दिया था. गौरतलब है कि इस मूर्ति में दिखाया गया अंधा कानून और सजा के प्रतीक आज के समय के हिसाब से नहीं थे. इसीलिए ये बदलाव किए गए. ऐसे में सवाल ये उठता है कि भारत का कानून अंधा क्यों कहा जाता है. और पहले न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी क्यों लगाई गई थी? चलिए जानते हैं.
क्यों लगाई गई थी न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी?
न्याय के देवी की आंखों पर पहले पट्टी लगी हुई थी. जिसका मतलब ये था कि कानून सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करता है. इसके साथ ही न्याय की देवी के हाथों में तलवार थी. जो ये बताता था कि कानून के पास ताकत है. वो गलत करने वालों को सजा दे सकता है. हालांकि नई मूर्ति में एक चीज हो जिसे नहीं बदला गया है और वो है तराजू. नई मूर्ति के हाथ में अब भी तराजू रखा गया है. ये बताता है कि न्यायलय किसी भी मामले में दोनों पक्षों की बात सुनकर ही फैसला लेता है. यानी तराजू संतुलन का प्रतीक है.
अंधा क्यों कहा जाता है भारत का कानून?
भारत में न्याय की देवी के आंखों में पट्टी थी, कई लोग इसका मतलब ये निकालते थे कि भारत का कानून अंधा है. जबकि इस पट्टी का मतलब था कि किसी को बिना देखे न्याय करना. यानी जब किसी को देखकर न्याय किया जाता है तो उसे कई बार एक पक्ष में समझा जा सकता है. जबिक आंखों पर पट्टी बंधे होने का मतलब ये था कि न्याय की देवी हमेशा निष्पक्ष होकर न्याय करती हैं. इस तरह जस्टिस की मूर्ति हमें ये याद दिलाती हैं कि सच्चा न्याय निष्पक्ष और बिना किसी भेदभाल के करना चाहिए.